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अरुण मिश्रा

वो सुबह कभी तो आएगी

कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि अच्छा और लोकप्रिय फिर से एक दूसरे के पर्याय बन जाएँ …



*पहला दृश्य*


"जौन इलिया मेरे सबसे पसंदीदा सायर हैं l"


अरे वाह, उनकी कौन सी किताब पढ़ी आपने ?


"किताब… हम्म, जी मैं तो उनको फेसबुक पे फॉलो करता हूँ , काफी एक्टिव हैं वो सोशल मिडिया पे l"


मैने कहा माफ करियेगा जौन साहब का इंतकाल हुए तो समय हो गया l मन ही मन सोचा, हो सकता है बेचैन सायर की भटकती रूह फेसबुक पे रोज़ कोई शेर पोस्ट करती हो l


*दूसरा दृश्य*


"मुझे तो ग़ज़ल लिखने का शौक है l"


माफ़ करियेगा पर आपकी इस ग़ज़ल का रदीफ़ बार बार बदल क्यों रहा है? ये तो नियम के खिलाफ़ हुआ ना?


"अरे जनाब, इन्ही नियमों से तो आज़ादी की लडा़ई है हमारी"


मैं सोच में पड़ गया "बिना नियम की ग़ज़ल जैसे बिना पत्तों का पेड़ या जैसे सुगंधरहित फूल l"


उम्मीद करता हूँ कि ऐसे उदाहरण कोई अपवाद नहीं हैं और आपका सामना भी इनमें से किसी ना किसी से कभी ना कभी, कहीं ना कहीं हुआ ही होगा l मुझे नहीं पता इस चलन को किसी -ism या सिंड्रोम के तहत वर्गीकृत कर सकते हैं l


आज हमारी लिखी हुई कोई भी कविता, ग़ज़ल, नज़्म, लेख, निबंध, बनाई हुई कोई भी तस्वीर और गाए हुए किसी

भी गीत को सोशल मिडिया पे "likes" और "views" के मापदंड से नापा जा रहा है l


आज *प्रसिद्ध* होना और *अच्छा* होना एक ही बात बनकर नहीं रह गए हैं, ये दोनों अब एक ही छत के नीचे रहने वाले सौतेले भाइयों के समान हैं l हैं तो दोनों एक ही बाप के बेटे लेकिन स्वभाव, आचार और विचार बिल्कुल अलग l


हम एक मायावी युग में साँस ले रहे हैं l


हॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म "Matrix"( हिंदी में मायाजाल) का अभिनेता भी अगर आज हिंदुस्तान आ जाए तो इस मायाजाल में फँस कर बस "likes, share, subscribe" गिनता रह जाएगा l


सुध बुध खोकर दिन रात कंटेंट बनाया जा रहा है, पर क्या ये तथाकथित कंटेंट परोसे जाने लायक है भी या नहीं, ये कैसे तय करें?


क्या हम संगीत की परंपरा में सा रे गा मा, पा धा नी सा का ककहरा सीखने से पहले ही ऑटो ट्यून की शरण में चले जाएं?


क्या दिनकर, बच्चन, मुक्तिबोध, निराला, कुँवर नारायण , बाबा नागार्जुन जैसे कालजयी रचनाकारों को पढ़ने समझने की बजाय कुछ भी अनर्गल लिख बोल के स्वघोसित "स्पॉकेन वर्ड पोयट्" बन जाएँ?


क्या हम कुछ ऐसा ऐसा नहीं कर सकते कि अच्छा और लोकप्रिय फिर से एक दूसरे के पर्याय बन जाएँ l मेरा पास भी इसका कोई सटीक जवाब नहीं है और ना ही कोई एक इंसान इसका जवाब दे सकता है l ये हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी जरूर हो सकती है l


कोई भी अच्छी कविता, कहानी, पेंटिंग, नाटक, फिल्म, संगीत आदि किसी एक की नहीं बल्कि पूरे समाज की धरोहर होती हैं l एक पहल इस पेज के माध्यम से ये हो सकती है कि सभी लोग जो इतना अच्छा पढ़ते/लिखते बोलते/समझते हैं, अपने आसपास जागरूकता फैलायें और एक ईमानदार कोशिश करें l और ये उम्मीद करते हैं कि *वो सुबह कभी तो आएगी*


पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ll


 

arun mishra
अरुण मिश्रा

अरुण मिश्रा पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं l अच्छी कहानी और कविता की तलाश में ये भाषाओं और किताबों में भटकते रहते हैं, मानते हैं कि वो सुबह कभी तो आएगी l





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2 Comments


djayshree012
Jan 07, 2021

अरूण जी वो सुबह जरूर आएगी 😍

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Ashok Kumar Sand
Ashok Kumar Sand
Oct 26, 2020

Awesome 👍

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